12 mahaajan kaun- kaun aate hai?
Posted in: भागवत पुराण

12 महाजन में कौन से देव एवं ऋषि-मुनि आते है

12 महाजन में कौन से देव एवं ऋषि-मुनि आते है? : भारत भूमि एक पावन भूमि है जहाँ पर अलग-अलग समय पर लोक कल्याण के लिए भगवान के अनेक भक्तों का अवतरण हुआ है। भक्त अपनी भक्ति के बल से भगवान को अपना लिखा बदलने के लिए विवश कर देते है।

उन्ही भक्तजनों में 12 ऐसे भक्त है जिनको 12 महाजन कहा जाता है। आज हम ऐसे ही 12 महाजनों के बारे में जानेंगे। इन 12 महाजनों के बारे श्रीमद्भागवत और भक्तमाल में भी लिखा गया है। जिन्होंने भक्ति में शक्ति वाक्य को सार्थक किया है और ये भी बताया है कि भगवान भक्तों के अधीन होते है।

कर्माबाई जैसे भक्तों के लिए भगवान अपने 56 भोग को छोड़कर उनके घर खिचड़ी खाने के लिए आये थे। धन्ना भक्त के लिए उनके खेतो में काम किया। सैन भक्त के लिए नाई का रूप धरा।

भक्त प्रहलाद की कही बात कि कण कण में भगवान है, इस बात को साबित करने के लिए खम्भे में से नृसिंह भगवान के रूप में प्रकट हुए। शबरी जिसका छुआ कोई पानी भी नही पीता था उनके जूठे बेर खाए।

इस प्रकार से हमारे इस देश मे कई भक्त आये जिन्होंने ने केवल जीव मात्र के उद्धार को ही अपना उदेश्य बनाया। वो भक्त शिरोमणि अपने जीवन चरित्र से हमको ये सिखाते है कि ये मानव जन्म केवल भोग भोगने के लिए नही हुआ। परन्तु अपने परम लक्ष्य को पाने और भगवान की सेवा के लिए हुआ है। हमारा असली स्वरूप दासानुदास का है। मतलब जो भगवान के भक्त है।

उनके दासों का भी दास बनना है। ऐसा नही है कि भगवान के भक्त किसी कुल या जाति या स्थान विशेष में अवतरित हुए है। वे हर जाति और विश्व के हर कोने में अलग अलग समय पर अवतरित हुए है। उनके लिए न कोई ऊंचा होता है ना कोई नीचा। वो सबको समान दृष्टि से देखते थे। क्योंकि भगवान ने तो केवल मनुष्य को बनाया था। कोई जात-पात नही बनाई। ये सब जात-पात हम मनुष्यों के बनाये हुए है।

भगवान तो सबके हृदय में निवास करते है। चाहे वो नीच जाती का हो या ऊंची जाति का। भगवत भक्त हमेशा दूसरों के कल्याण की ही कामना करते है। वैष्णव धर्म मे अनेको भक्त हुए है जो अपनी भक्ति के बल पर भगवान को अपने वश में कर लेते है।

श्रीमद्भागवत में एक श्लोक में इन 12 महाजन के बारे में कहा गया है।

  • ब्रह्मा जी
  • नारद जी
  • शिव जी
  • चारों सनत कुमार(सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार)
  • कपिलमुनि
  • मनु महाराज
  • प्रहलाद महाराज
  • जनक महाराज
  • भीष्म पितामह
    • बलि महाराज
    • शुकदेव गोस्वामी महाराज
    • धर्मराज यमदेव

    ब्रह्मा जी पहले महाजन :

    सृष्टि के आरम्भ में भगवान विष्णु के नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ। जिस कमल पर ब्रह्मा जी का प्राकट्य हुआ। जन्म न होने के कारण उनको स्वंयम्भू कहा जाता है। जब ब्रह्मा जी ने अपनी आंखें खोली तो उनको चारो ओर केवल सागर ही सागर दिख रहा था।

    फिर वो कमल के नाल के माध्यम से अपने प्राकट्य के रहस्य का पता लगाने गए। लेकिन उनको इस रहस्य का पता नही चला। फिर उनको तप तप की ध्वनि सुनाई दी। बहुत तपस्या के बाद उनको शेषशय्या पर सोए भगवान विष्णु के दर्शन हुए।

    ब्रह्मा जी का सृष्टि करना – भगवान विष्णु ने उनको सृष्टि करने का ज्ञान और चार श्लोकों में भागवत का ज्ञान दिया। फिर ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की और भागवत का ज्ञान नारद जी को प्रदान किया। ब्रह्मा जी अपने संकल्प से चार कुमार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार को उत्पन्न किया। लेकिन उनकी सृष्टि करने में रुचि नही थी। वे भगवान विष्णु की भक्ति में ही लीन रहने लगे और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।

    फिर सृष्टि करने के लिए ब्रह्मा जी ने मनु और शतरूपा को प्रकट किया। उनके पांच सन्तान उत्पन्न हुई। दो पुत्र जिनके नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद और तीन पुत्रियां प्रसूति, आकूति और देवहूति हुई। उत्तानपाद का विवाह सुरुचि और सुनीति से हुआ। ध्रुव महाराज उनके ही पुत्र थे। आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह प्रजापति दक्ष से हुआ और देवहूति का विवाह कर्दम ऋषि से हुआ। जिनके घर भगवान कपिल का जन्म हुआ।

    नारद जी दूसरे महाजन :

    नारद जी ब्रह्मा जी के मानस पुत्र है और भगवान विष्णु के परम भक्त है। उनकी जिह्वा से हर पल हरि सिमरन ही निकलता है। उन्होंने ब्रह्मा जी से भागवत ज्ञान प्राप्त किया था जो भगवान विष्णु जी ने ब्रह्मा जी को दिया था। वही भागवत ब्रह्मा जी ने नारद जी को दी और नारद जी ने व्यास जी को इसका ज्ञान प्रदान किया था। फिर व्यास जी ने श्रीमद्भागवत का निर्माण किया।

    पिछले कल्प में नारद जी के जन्म की कथा – भक्तमाल में नारद जी की एक कथा आती है। कथा इस प्रकार है। कि नारद जी पूर्व कल्प में एक गन्धर्व थे। उनको अपने रूप पर बहुत अभिमान था और इसी अभिमान के कारण जब सभी गन्धर्व जब भगवान की स्तुति करने गए थे। तब नारद जी अपने साथ मे अपनी प्रेमिकाओं को भी साथ मे ले गए और भगवान की लीलाओं का वर्णन करने की बजाय अपने और अपनी प्रेमिकाओं के रूप का बखान करने लगे।

    इस वजह से उनको निम्न योनि में जाने का श्राप मिला। फिर उनका जन्म पृथ्वी लोक के एक क्षुद्र परिवार में हुआ था। जब वे पांच वर्ष के थे तब उनकी माता के अलावा उनके सभी रिश्तेदार स्वर्ग सिधार गए थे। वे अपनी माता के साथ ही रहते थे एक बार उनके घर पर कुछ सन्त आये उनकी माता ने उनको अपने घर मे रहने का आग्रह किया और उनकी सेवा करने लगी।

    बालक भी उनकी सेवा करते थे। वे भोजन में उन सन्तों का उच्छिष्ट भोजन ही ग्रहण करते थे और भगवान के गुणों का श्रवण करते थे। जब उनके जाने का समय आया तो उन लोगों ने बालक को बहुत से आशीर्वाद देकर कहा कि तुमको भगवत प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए। कुछ दिनों बाद जब अपनी माता के स्नेह से उनका दामन छूट गया अर्थात उनकी माता का देहांत हो गया।

    तब वे भगवान की खोज में निकल पड़े और वन में जाकर उन सन्तों की बताई विधि के अनुसार भगवान की प्राप्ति के लिए तप करने लगे। तो एक दिव्य तेज उनको अपने भीतर महसूस हुआ लेकिन वो दिव्य तेज कुछ क्षणों के लिए ही था। लेकिन इससे नारद जी व्याकुल हो कर इधर-उधर भटकने लगे।

    तभी एक आकाशवाणी हुई और नारद जी को कहा कि तुम इस जीवन मे मेरा दर्शन नही कर सकते। लेकिन तुमको शांत करने के लिए मैने तुमको अपनी एक झलक दिखाई थी। इस जन्म में तुम इस देह से मेरा दर्शन नही कर सकते। इसलिए अगले जन्म में तुमको मेरे दर्शन के साथ मेरी अमिट भक्ति भी प्राप्त होगी।

    इस कल्प में नारद जी का जीवन : इस प्रकार नारद जी उस कल्प में अपना शरीर त्याग कर इस कल्प में ब्रह्मा जी के मन से प्रकट हुए और भगवान की भक्ति के शिखर पर पहुंचे। उनके मार्गदर्शन से कई भक्त भक्ति की सर्वोच्च सिद्धि पा सके। जैसे ध्रुव महाराज जब अपना घर छोड़कर भगवान को प्राप्त करने के लिए वन में गये तो देवऋषि नारद जी ने उनका मार्गदर्शन किया और उनको भगवान की प्राप्ति हुई।

    इसी प्रकार भक्त प्रह्लाद को भी गर्भ मे ही भक्ति का ज्ञान प्रदान किया। दक्ष प्रजापति के ग्यारह हजार पुत्रो को भी नारद जी ने भक्ति के मार्ग पर प्रशस्त किया। इसी कारण दक्ष प्रजापति ने उनको श्राप दिया कि वो ज्यादा समय तक एक जगह पर न रह सकेगे। लेकिन उस श्राप को भी उन्होंने वरदान ही समझा।

    शिवजी का तीसरे महाजन :

    शिवजी के बारे में कहा गया है “वैष्णवानाम यथाशम्भो” यानी वैष्णवो में शिवजी सर्वोपरी है। वो हरदम भगवान के ध्यान में ही रहते थे। कभी-कभी तो वो ध्यान में कई युगों तक रहते थे। एक बार जब वो अपने ध्यान में मग्न थे तब देवताओं पर तारकासुर नाम का संकट आ गया और उसको केवल भगवान शिव का पुत्र ही मर सकता था।

    लेकिन देवताओं को पता था कि शिवजी की समाधि तो युगों तक चलती है। इसलिए उनका ध्यान भंग करने के लिए उन देवताओं ने कामदेव को भेजा और कामदेव ने उनकी समाधि भंग की और शिवजी ने उनको भस्म कर दिया। जब उनकी पत्नी ने विनय की तो भगवान ने वरदान देते हुए कहा कि तुम्हारा जन्म भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में होगा और इस प्रकार से भगवान शंकर क्रोध में भी अपनी कृपा ही करते है।

    शिवजी हमेशा भगवान की कथा सुनने के लिए उन्होंने अपने ग्यारहवें रुद्र के रूप में हनुमान जी के रूप में हमेशा भगवान श्री राम के साथ रहे। उनसे उनके इस पृथ्वी लोक से जाने के बाद उनकी हर कथा में मौजूद रहने का वरदान लिया।

    शिवजी ने माता सती का त्याग क्यों किया – शिवजी भी पार्वती जी को भगवान की कथा-लीलाओं तथा उनके गुण का गान करते रहते है। जब पूर्व जन्म में सती जी ने माता सीता का रूप धर के रामजी की परीक्षा ली।
    तो माता सीता का रूप धरने के कारण शिवजी ने उनका त्याग कर दिया। क्योकि वो उनके प्रभु की संगिनी माता सीता का रूप धरि थी इसलिए शिवजी उनको अपनी पत्नी रूप में नही देख पा रहे थे। और सती जी ने अपना शरीर अपने पिता द्वारा आयोजित यज्ञ में प्रवाहित कर अगले जन्म में माता पार्वती के रूप में शिवजी से विवाह किया।

    चारों कुमार (सनक,सनन्दन,सनातन,सनत्कुमार) चौथे महाजन :

    सनकादि चारों कुमार ब्रह्मा जी के संकल्प से उत्पन्न हुए। जब उनको ब्रह्मा जी ने सृष्टि करने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया क्योकि वे भगवान के भक्त थे। उन्होंने कुमार अवस्था मे ही ब्रह्मचर्य ग्रहण कर लिया था। और भगवान की भक्ति का विस्तार करना ही उनका परम् उद्देश्य था।

    भगवान के पार्षद जय और विजय को श्राप – एक बार जब वे भगवान विष्णु से मिलने के लिए बैकुंठ लोक गए तो उनको भगवान के द्वारपाल जय और विजय ने रोक दिया। उनसे क्रुद्ध होकर चारों कुमारो ने उनको असुर कुल में जन्म लेने का श्राप दिया। इसी कारण उनके तीन जन्म राक्षस कुल में हुए पहला जन्म हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के रूप में हुआ। दूसरा जन्म रावण और कुंभकर्ण के रूप में हुआ। तीसरा जन्म शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में हुआ। भगवान विष्णु ने ही उनका वध कर उनका उद्धार किया था।

    कपिल मुनि पांचवें महाजन :

    जब नारद जी ने कर्दम मुनि के बारे में मनु पुत्री देवहुति को बताया तो उनके गुणों और ज्ञान के कारण देवहुति ने उनको मन ही मन अपना पति मान लिया। तब स्वयम्भुव मनु अपनी पुत्री की इच्छा पूर्ति के लिए रथ पर अपनी पत्नी शतरूपा और पुत्री देवहुति को लेकर महृषि कर्दम मुनि के आश्रम की ओर गए।

    वहां कर्दम मुनि को भगवान विष्णु ने दर्शन देकर कहा कि तुम मनु पुत्री देवहूति के साथ विवाह करो। मैं देवहूति और आपके पुत्र के रूप में अवतार लूंगा। तब मनु अपनी पत्नी और पुत्री के साथ कर्दम मुनि के आश्रम पहुचे। कर्दम मुनि ने उनका स्वागत किया और वहाँ आने का कारण पूछा।

    कर्दम मुनि और देवहूति का विवाह – मनु महाराज ने कहा कि मेरी पुत्री ने आपके बारे में नारद जी से सुनकर आपको ही अपने पति के रूप में मन मे बसा लिया है। मैं अपनी पुत्री का आपके साथ विवाह कराना चाहता हूँ। तब कर्दम मुनि ने कहा कि मैं आपकी पुत्री से विवाह करने के लिये तैयार हूँ। तब मनु महाराज ने उनका विवाह करवा दिया।

    और वहां से चले गए। कर्दम मुनि की पत्नी देवहुति ने कर्दम मुनि के समाधि में जाने के बाद उनकी बहुत सेवा की।उनकी सेवा में देवहुति को अपना ख्याल ही नही रहा।

    कपिल मुनि का जन्म – उनका शरीर बहुत ही बेहाल हो गया था। उनके चेहरे की कांति चली गयी उनके बालों कि कांति भी चली गयी। जब ऋषि कर्दम अपने समाधि से उठे और अपनी पत्नी की सेवा से प्रसन्न होकर उनके रूप को फिर से कांति मान और तेजस्वी बनाया। फिर कर्दम मुनि ने एक दिव्य विमान बनाया उसमे बिठा कर अपनी पत्नी को ऐसे-ऐसे लोको में लेकर गए।

    जहां पर जाना देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। वहाँ पर वो अपनी पत्नी देवहुति को लेकर गए। उन्होंने कई वर्षों तक विहार किया। कर्दम मुनि और देवहुति के नौ पुत्रियां हुई। फिर देवहूति ने अपने पति कर्दम मुनि से कहा कि हे मुनियों में श्रेष्ठ ! आप सन्यास धारण कर लेंगे और हमारी पुत्रियां भी विवाह के पश्चात चली जायेगी।

    फिर मैं अकेली ही रह जाऊंगी और एक पुत्र की इच्छा प्रकट की। कर्दम मुनि को फिर भगवान के कहे वचनों का स्मरण आया और उन्होंने अपनी पत्नी को कहा कि तुम भगवान का व्रत ध्यान और सेवा करो और भगवान को प्रसन्न करने वाला अनुष्ठान बताया। फिर अनुष्ठान पूरा होने के कुछ समय बाद देवहूति ने एक पुत्र को जन्म दिया।

    उनका नाम उन्होंने कपिल रखा। चूंकि वे भगवान के अवतार थे। तो उनके दर्शन के लिए सभी देवता आये। ब्रह्मा जी भी उनके दर्शन को आये। फिर ब्रह्मा जी के कहने पर कर्दम मुनि ने अपनी नौ पुत्रियों का विवाह नव ऋषियों से किया। फिर उन्होंने कुछ समय बाद सन्यास ले लिया। कपिल मुनि ने अपनी माता को उपदेश देकर उनको शोक मुक्त किया। कपिल मुनि ने साँख्य दर्शन का निर्माण किया और उसके माध्यम से सभी को तत्व ज्ञान दिया।

    मनु महाराज छठवें महाजन :

    ब्रह्मा जी के क्रोध से उत्पन्न अर्धनारीश्वर रुद्र को ब्रह्म जी ने दो भागों में विभक्त किया पुरुष भाग का नाम मनु और स्त्री भाग का नाम शतरूपा रखा। मनु और शतरूपा के पांच सन्तान थीं दो पुत्र और तीन पुत्रियां। जिनके नाम प्रियव्रत, उत्तानपाद, प्रसूति, आकूति और देवहूति था।

    उत्तानपाद का विवाह सुनीति से हुआ। लेकिन उनके कोई संतान न होने के कारण उसने अपने पति उत्तानपाद का दूसरा विवाह करने को कहा। लेकिन उत्तानपाद ने दूसरा विवाह करने से मना कर दिया। क्योकि वो अपनी पत्नी सुनीति से बहुत प्रेम करते था। लेकिन सुनीति से किसी प्रकार उनको दूसरा विवाह करने के लिए मना लिया।

    उत्तानपाद का दूसरा विवाह सुरुचि नाम की कन्या से हुआ। सुरुचि ने धीरे धीरे उत्तानपाद को अपने प्रेम वश में कर लिया और सुनीति को उससे दूर कर दिया। सुरुचि से उसके एक सन्तान उत्त्पन्न हुई। जिसका नाम उत्तम रखा गया। और सुनीति से भी एक सन्तान उत्पन्न हुई। जिसका नाम ध्रुव रखा गया। एक बार जब बालक उत्तम अपने पिता की गोद मे बैठा था।

    तो बालक ध्रुव ने भी उनकी गोद मे बैठने की इच्छा की लेकिन उनकी दूसरी माता सुरुचि ने उसको ये कहते हुए डाँटा की उसका अपने पिता की गोद मे बैठने का कोई हक नही है। अगर उसको अपने पिता की गोद मे बैठना है। तो उसको भगवान की तपस्या करनी पड़ेगी। और जब वे प्रसन्न हो जाये तो उनसे ये वरदान मांगना होगा कि अगली बार उसका जन्म सुरुचि के गर्भ से होना चाहिए।

    तब जाकर उसको अपने पिता की गोद मे बैठने का सौभाग्य प्राप्त होगा। बालक ध्रुव गुस्से में अपनी माता के पास गया और अपनी माता से पूछा कि क्या मुझे अपने पिता की गोद मे बैठने का कोई हक नही है। तो सुनीति ने कहा कि तुम ऐसा क्यों कहा रहे हो। तो उसने सारी बात माता को बताई और कहा कि मुझे माता ने ऐसा कहा मुझे इस बात का दुख नही हुआ।

    लेकिन पिता श्री के सामने उन्होंने मुझे कहा और पिता श्री ने कुछ नही कहा मुझे इस बात का बहुत दुख हुआ। क्या मैं उनका पुत्र नही हूं। तब बालक की माता ने कहा कि तुम अपने पिता की गोद मे बैठने के लिए तप करने जा रहे हो। और वो भी तुम परमपिता जो सबके पिता है। उनसे तुम अपने पिता की गोद मे बैठने के लिए वरदान मांगोगे।

    जब सबके पिता ही तुम्हारे सामने होंगे तो तुम उनकी गोद मे बैठने का वरदान माँगना। फिर रात को जब उनकी माता सो गईं तो वो तपस्या करने जंगल मे चला गया। जंगल में नारद जी उनको मिले और उन्होंने पूछा बालक तुम इतनी रात में जंगल मे क्या कर रहे हो।

    ध्रुव महाराज का नारद जी से मिलन और भगवान वासुदेव के दर्शन – तब बालक ध्रुव ने उनको सारी बात बताई। नारद जी ने कहा कि मैं नारद हूँ। मैं तुमको वो विधि बताऊंगा जिससे तुम भगवान को प्रसन्न कर सको। और नारद जी के बताई विधि और मंत्र जप के अनुसार बालक ध्रुव ने तप शुरू किया। जब अंतिम विधि के अनुसार बालक ध्रुव ने सांस लेना बंद कर दिया तो जैसे सारी सृष्टि में हवा का बहाव रुक गया।

    तब भगवान वासुदेव उनके सामने प्रकट हुए और उनसे वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने भगवान की गोद मे बैठने का वरदान मांगा। भगवान ने बालक ध्रुव को अपनी गोद मे बिठाया। सारे संसार मे ध्रुव जी की ख्याति बढ़ गयी। फिर इस लोक में सुख भोगकर वो अपनी माता के साथ ध्रुव लोक चले गए।

    प्रियव्रत की कथा और मनु महाराज की तपस्या – उन के जाने के बाद पृथ्वी को राजा विहीन जानकर महाराज मनु प्रियवत के पास गए और उनसे विवाह करके राज करने को कहा। लेकिन वो नही माने तब ब्रह्मा जी के उपदेश पर वे विवाह करने को तैयार हो गए और विवाह के पश्चात उनके दस पुत्र रूपी सन्न्तान हुई। उनकी तीन सन्तानो ने निवृत्ति का मार्ग अपना लिया।

    उन्होंने पृथ्वी को सात द्वीपो में विभाजित किया और अपने बाकी के सात पुत्रों को द्वीपो का राज सौंपकर वो फिर से भगवान का ध्यान करने चले गए। फिर उन के पुत्रों ने भी अपना राज अच्छी तरह सम्भाला और फिर बाद में अपने पुत्रों को सारी जिम्मेदारी देकर उन्होंने भी अपने पिता का अनुसरण किया।

    मनु भी इस लोक का सुख भोगकर अपनी पत्नी के साथ तप को चले गए और घोर तपस्या के बाद जब भगवान ने उनसे वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने भगवान के जैसे पुत्र की इच्छा की लेकिन भगवान के जैसा कोई और तो था नही तो भगवान ने उनको वर दिया कि अगले जन्म में वो उनके पुत्र के रूप में प्रकट होंगे। फिर जब वे अपना शरीर त्यागकर दूसरे जन्म में दशरथ और कौशल्या के रूप में जन्मे तो भगवान ने उन के पुत्र राम के रूप में अपना अवतार धारण किया।

    प्रहलाद महाराज सातवें महाजन :

    प्रहलाद महाराज हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप के पुत्र थे। उनकी माता का नाम कयाधु था। जब भगवान विष्णु ने वराह रूप में हिरण्याक्ष का वध कर दिया।तब हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप ने भगवान विष्णु से बदला लेने के लिए कठोर तप करने के लिए चला गया। तो पीछे से देवराज इंद्र ने असुरों पर आक्रमण कर दिया और उनको परास्त कर उनकी पत्नी  कयाधु का अपहरण कर अपने साथ ले जाने लगे।

    तब रास्ते मे उनको देवऋषि नारद मिले, देवऋषि नारद ने उनको पूछा कि आप कयाधु को कहां ले जा रहे है। तो इंद्र ने कहा कि कयाधु के गर्भ हिरण्यकश्यप का पुत्र पल रहा है। जो आगे जाकर देवताओं का दुश्मन बनेगा। इसलिए मैं उसके जन्म लेते ही उसको समाप्त कर दूंगा। तब देवऋषि नारद ने कहा कि आप चाहे तो भी उसको नही मार सकते क्योंकि देवी कयाधु के गर्भ में भगवान विष्णु के परम भक्त का आगमन हुआ है।

    प्रहलाद महाराज की भक्ति की शक्ति – वो भगवान के ही अंश है इसलिए आप उनको नष्ट करने का पाप मत कीजिये।
    फिर देवऋषि नारद कयाधु को अपने साथ अपने आश्रम में ले गए। और गर्भ से ही बालक को भगवान के गुणों और भक्ति का ज्ञान देने लगे। जन्म होने के पश्चात उनको सब ज्ञान था। उनका नाम प्रह्लाद रखा गया।

    जब हिरण्यकश्यप की तपस्या पूर्ण हुई तो ब्रह्मदेव ने उनको वरदान दिया। उसके बाद हिरण्यकश्यप अपने भवन को लोटे तो उनको इंद्र के आक्रमण के बारे में पता चला। वो क्रोध में आग बबूला हो गया। बाद में देवऋषि नारद जी कयाधु और प्रहलाद महाराज को हिरण्यकश्यप के पास छोड़ दिया। फिर हिरण्यकश्यप ने अपना आतंक शुरू कर दिया और जो भी भगवान विष्णु का नाम या उनकी भक्ति करता उसको वो मृत्यु का दंड देता।

    सबको कहता कि वही भगवान है और उसकी पूजा करो। लेकिन बालक प्रहलाद भगवान विष्णु की भक्ति में ही मग्न रहते थे। जब ये बात हिरण्यकश्यप को पता चली तो उसने प्रहलाद को बहुत प्रकार से समझाया कि वो भगवान विष्णु का नाम लेना छोड़ दे। लेकिन भक्त प्रहलाद कहते कि ये शरीर प्राण छोड़ सकता है। लेकिन ये जिह्वा भगवान विष्णु का नाम नही छोड़ सकती।

    इस बात पर हिरण्यकश्यप को बहुत क्रोध आया और उसने प्रहलाद को पर्वत से गिराने का आदेश दिया। लेकिन जिसके रक्षक भगवान स्वयं हो उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है। भक्त प्रहलाद को कुछ भी नही हुआ। फिर भक्त प्रहलाद को गर्म तेल की कढ़ाई में डाला गया। लेकिन गर्म तेल देखते ही देखते पुष्पो में परिवर्तित हो गए। उसके पश्चात भक्त प्रह्लाद को विष दिया गया लेकिन उसका भी प्रहलाद महाराज पर कोई असर नही हुआ।

    हिरण्यकश्यप की बहन होलिका ने जब भक्त प्रहलाद को चिता की अग्नि में जलाने की कोशिश की तो वो स्वयं ही उस चिता की अग्नि में भस्म हो गयी। फिर हिरण्यकश्यप ने स्वयं ही उसका वध करने का निश्चय किया।

    नृसिंह देव का प्रकट होना

    हिरण्यकश्यप ने कहा कि कहां है तेरा भगवान जो तुम्हारी बार बार रक्षा करता है। पहले मैं उसका वध करूँगा और बाद में तुम्हारा ! कहां है विष्णु।

    तब भक्त प्रहलाद ने कहा की भगवान कहां है ये मत पूछिए। ये पूछिये की भगवान कहां नही है वो तो कण कण में है, मुझमें, इसमें, आपमे, इस महल के हर कोने में, तब हिरण्यकश्यप ने पूछा क्या महल के कोने-कोने में तेरा भगवान है। हाँ पिता श्री प्रहलाद महाराज ने कहा। क्या इस खम्बे में भी तुम्हारे भगवान है हिरण्यकश्यप ने कहा।

    तब प्रहलाद ने कहा हां इस खम्बे में भी भगवान है। तब हिरण्यकश्यप ने कहा तो पहले तेरे भगवान को ही नष्ट करूँगा। ऐसा बोलकर हिरण्यकश्यप ने खम्भे पर अपनी गदा से प्रहार किया। तभी खम्भे को फाड़ कर भगवान नरसिंह प्रकट हुए।उनका रूप देखकर वहाँ सभी भयभीत हो गए। नृसिंह देव ने हिरण्यकश्यप का वध कर दिया।

    वो अपने उग्र रूप में थे सभी उनको शांत करने में असमर्थ थे। तब सभी के कहने पर भक्त प्रहलाद ने उनकी स्तुति की तब जाकर वे शांत हुए और प्रहलाद महाराज को अपने गोद मे बिठाया। उसके बाद प्रहलाद महाराज ने कई वर्षों तक राज करके भगवान के लोक में चले गए।

    जनक महाराज आठवें महाजन :

    महाराज जनक की उत्पत्ति ऋषियों के द्वारा, निमि महाराज के शरीर का मंथन करने से हुई। सभी वंशजो को मैथिल, विदेह और जनक भी कहते है। सीरध्वज जनक जो माता सीता के पिता थे उनको राजऋषि भी कहा जाता था। वो राजा होते हुए भी एक ऋषि के जैसा जीवन बिताते थे। महाराज जनक से ज्ञान प्राप्त करने के लिए कई मुनि ऋषि उनके पास आते थे।

    यहां तक कि परशुराम जी ने उनको एक शिव धनुष भी दिया था। शिवधनुष को कोई उठाना तो दूर कोई हिला भी नही सकता था। लेकिन उनकी पुत्री सीता उस धनुष को एक हाथ से ही उठा कर उसकी सफाई करके उस धनुष की पूजा करती थी।

    श्रीरामचन्द्र जी और भगवती सीता जी का विवाह

    जब उनकी पुत्री सीता के विवाह की बात आई तो उन्होंने सोचा कि मेरी पुत्री सीता का विवाह किसी साधारण मनुष्य से नही हो सकता वो एक दिव्य कन्या है। तो उसका पति भी दिव्य होना चाहिए। इसलिए उन्होंने ये घोषणा कर की जो भी इस शिव धनुष को उठाकर इसपर प्रत्यंचा चढ़ाएगा। उसके साथ मेरी पुत्री सीता का विवाह होगा।

    इस प्रकार की घोषणा के साथ अपनी पुत्री सीता का स्वयंवर रखा। उस स्वयंवर में बहुत से बलशाली राजा महाराजा आये यहाँ तक कि देवता और असुर भी मनुष्य का भेष बदल के उस स्वयंवर में भाग लेने आये। लेकिन कोई भी उस शिव धनुष को हिला तक नही सका। जब जनक जी ने पृथ्वी को वीर विहीन कहा ! तब लक्ष्मण जी जो अपने भ्राता प्रभु श्रीराम और गुरु विश्वामित्र के साथ आये थे।

    उन्होंने कहा कि जहां पर रघुकुल में कोई एक भी बैठा हो तो वहां आप ऐसी बात किस प्रकार कह सकते है। यहां पर तो रघुकुल शिरोमणि प्रभु श्री राम बैठे है वहाँ आपने इस प्रकार की बात कैसे कही। मेरे भ्राता की बात तो छोड़िए। अगर वे मुझे आज्ञा दे तो मैं अभी इस पृथ्वी को इस शिव-धनुष सहित गेंद की तरह उठा कर फेंक दूँ।

    तब श्री राम ने लक्ष्मण को शांत होने को कहा। तब राजा जनक ने कहा कि मैं ये बात अपनी पुत्री के मोह में कह गया। आप कृपया मुझे क्षमा कर दीजिए। तब गुरु की आज्ञा से भगवान श्रीराम चन्द्र जी ने उस शिव धनुष को एक हाथ से उठा दिया।

    ये देखकर सब अचंभित हो गए।फिर जब वे उस पर प्रत्यंचा चढाने लगे तो वो शिव धनुष टूट गया। इस प्रकार भगवान श्रीराम जी और माता सीता का विवाह हुआ। जनक जी के बारे में कहने के लिए बहुत कुछ है लेकिन इसके बारे में बाद में बताएंगे।

    भीष्म पितामह नवें महाजन :

    पितामह भीष्म महाराजा शान्तनु और माता गंगा के पुत्र थे। उनका नाम देवव्रत था।जब एक मछुआरे की पुत्री सत्यवती पर मोहित होकर राजा शान्तनु ने उनसे विवाह करने की इच्छा की तो सत्यवती ने उनका विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिया।

    जब इस बात का देवव्रत को पता चला तो उसने विवाह को ठुकराने के कारण पूछा। तो उनको सत्यवती के पिता ने बताया कि हमने ये शर्त रखी थी। सत्यवती और शान्तनु जी की सन्तान ही राजा बने।

    देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा – तब देवव्रत ने अपने पिताको जाकर कहा कि बस इतनी सी बात के लिए आप ये विवाह नही कर रहे। मुझे तो वैसे भी ये राज्य नही चाहिए और उन्होंने ये प्रतिज्ञा की कि वे कभी इस सिहासन पर अधिकार व्यक्त नही करेंगे। तब उनके पिता ने कहा बस तुम्हारे लिए ही नही अपितु उनकी शर्त तुम्हारे वंशजो के लिए भी मांगी थी इसलिए मैंने उनको मना कर दिया।

    लेकिन देवव्रत ने कहा कि मेरे कारण आप विवाह सुख से वंचित हो, ये मुझे कतई स्वीकार नही है। इसलिए मैं प्रतिज्ञा करता हूँ ! कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा और सदैव इस सिहासन की रक्षा करूँगा। तब से उनका नाम भीष्म पड़ गया। इससे प्रसन्न होकर पितामह भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। उसके बाद उन्होंने हमेशा हस्तिनापुर की रक्षा की।

    वो जितने बड़े वीर थे उतने ही वो श्यामसुंदर भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे। वो परम् ज्ञानी भी थे। इसलिए उनकी भक्ति के वश में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्त पितामह भीष्म का वचन न टूटे इसलिए अपना वचन तोड़कर कुरुक्षेत्र के युद्ध मे हथियार उठा लिया।ऐसे थे पितामह भीष्म।

    बलि महाराज दसवें महाजन :

    बलि महाराज भक्त प्रहलाद के पुत्र विरोचन के पुत्र थे। बलि महाराज परम दानियों की श्रेणी में आते थे। उनके पिता का इंद्र ने छल से वध कर दिया था। इसी का प्रतिशोध लेने के लिए महाराज बलि ने इंद्र के स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया। लेकिन देव
    राज इंद्र ने उनका भी वध कर दिया। लेकिन दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने उनको अपनी संजीवनी विद्या से पुनर्जीवित कर दिया।

    उसके बाद उन्होंने देवराज को स्वर्ग से खदेड़ दिया और स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार महाराजा बलि ने सभी लोको पर अधिकार कर लिया। और उसके बाद शुक्राचार्य जी ने उनको सौ यज्ञ करने को कहा। इस यज्ञ के पूर्ण होने के बाद महाराज बलि अजय हो जाते। तब देवताओं ने भगवान विष्णु जी से प्राथना की कि उस असुर का वध करें। फिर भगवान ने वामन रूप में अवतार धारण किया।

    बलि महाराज का दान – महाराज बलि जहां यज्ञ कर रहे थे वहां भगवान वामन रूप अवतार में पहुंचे। बलि महाराज के 99 यज्ञ पूरे हो गए थे ये उनका 100वां यज्ञ था। महाराज बलि का एक नियम था वे द्वार पर आए किसी भी याचक को खाली हाथ नही जाने देते थे। फिर जब वामन जी उनके द्वार पर भिक्षा याचना की तो वो अपने यज्ञ को बीचमे छोड़कर उनको भिक्षा देने के लिए चले गए।

    दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने उनको पहचान लिया और  छलिया विष्णु है। ये आपके साथ छल करने आया है। तब महाराज बलि ने अपने गुरु से कहा कि मेरा धर्म है याचक को उसके मांग के अनुसार देना। और अगर ये मेरे प्रभु विष्णु है तो भी ये मेरा सौभाग्य है कि सबको देने वाले मुझसे मांगने आये है। फिर वामन देव ने तीन पग भूमि मांगी बलि ने कहा की आप जहां चाहे वहां की भूमि नाप लीजिए।

    फिर वामन देव ने अपना आकार विस्तारित किया और दो पग में पूरी सृष्टि को नाप लिया और कहा अब मैं ये तीसरा पग कहां रखूँ। तब महाराजा बलि ने आत्मनिवेदन करते हुए कहा कि आप अपना तीसरा पग मेरे शीश पर रखिये। तब भगवान वामन देव ने अपना तीसरा पग महाराज बलि के शीश पर रख दिया।

    और उनको सुतल लोक का राज प्रदान किया भगवान स्वयं भी उनके द्वारपाल बनके वहीं पर रहने लगे। ऐसे महान भक्त थे महाराज बलि जिनके भक्ति के वश में बधकर भगवान द्वारपाल बन गए।

    शुकदेव गोस्वामी महाराज ग्यारहवें महाजन :

    शुकदेव गोस्वामी भगवान श्रीकृष्ण के नित्य पार्षद है। वो गोलोक धाम में श्री श्याम और किशोरी जी के साथ शुक रूप में निवास करते है। जब श्री श्याम और किशोरी जी लीला करने इस पृथ्वी लोक पर आए तब श्री शुक भी इस धरा पर वहाँ आये।

    शुकदेव जी का जन्म – जहाँ भगवान शंकर माता पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। तब वे भी वो अमर कथा सुनने के लिए वहाँ पर रुक गए। कथा को सुनते हुए माता पार्वती को निद्रा आ गयी। और उन्होंने कथा को सुनते हुए हुकार की आवाज बन्द कर दी । फिर शुक जी कथा को सुनते हुए हुंकार करने लगे।

    जब अमर कथा पूर्ण हुई तब शिवजी ने देखा कि पार्वती तो सो रही है तो हुंकार कौन कर रहा है। उन्होंने शुक जी को देखा और उनको मारने के लिए अपना त्रिशूल लेकर उनके पीछे गए। शुक जी तीव्र गति से उड़कर  वेदव्यास जी की पत्नी के गर्भ में स्थापित हो गए। शिव स्तुति: आशुतोष शशाँक शेखर चंद्र मौली चिदंबरा

    एक दूसरी कल्प की कथा के अनुसार वेदव्यास जी और उनकी पत्नी ने शिवजी की घोर तपस्या करके एक पुत्र की इच्छा की। शिवजी ने प्रकट होकर उनको भगवत भक्त पुत्र की प्राप्ति का वर दिया। उनके गर्भ में श्री शुक जी का आगमन हुआ लेकिन वे अपनी माता के गर्भ से बाहर नही आये क्योकि उनको भय था कि भगवान की माया गर्भ से बाहर आते ही उनका सब ज्ञान नष्ट कर देगी। इसलिए वे बारह वर्ष तक अपनी माता के गर्भ में ही रहे।

    माता को उनके आकर के कारण कष्ट न हो इसलिए शुकदेवजी योग बल से अति सूक्ष्म रूप में गर्भ में रह रहे थे। शुकदेवजी को उनके पिता ने और कई ऋषियों ने बहुत समझाया। लेकिन उन्होंने किसी की बात नही मानी। तब देवऋषि नारद ने भी उनको बाहर आने की प्रार्थना की लेकिन उन्होंने फिर भी बाहर आने से मना कर दिया। उसके बाद जब नारद जी के कहने पर श्रीकृष्ण जी ने कहा कि मेरी माया तुमको स्पर्श भी नही करेगी। तब जाकर शुकदेवजी ने जन्म लिया। और जन्म लेते ही वो वन में चले गए।

    शुकदेव जी की भागवत ज्ञान प्राप्ति – उनके पीछे उनके पिता वेदव्यास जी भी गए। पीछा करते हुए जब वे एक सरोवर के पास गए जहाँ पर कुछ देव कन्याएं जल क्रीड़ा कर रही थी। जब उन्होंने शुकदेव जी को देखा तो भी वो क्रीड़ा करती रही। लेकिन वेदव्यासजी को देखकर वो क्रीड़ा बन्द करके लज्जा करके अपने वस्त्र धारण किया।

    तब वेदव्यास जी ने उनसे पूछा कि इसका क्या रहस्य है। जब मेरा युवक पुत्र आपके सामने से गया तब आपको लज्जा नही आई। और जब मैं वृद्ध आपके सामने से निकला तो आपको लज्जा आने लगी। तब उन देवकन्याओं ने वेदव्यासजी को कहा कि आपका पुत्र स्त्री और पुरुष में भी भेद नही जानता तो उससे किस प्रकार की लज्जा। ये सुनकर वेदव्यासजी अपने घर को लौट गए।लेकिन अपने पुत्र से मिलने की इच्छा उनके मन मे रह गयी।

    उन्होंने सोचा कि संसारी चीजों से अपने पुत्र शुकदेवजी को रिझा नही सकते। शुकदेव जी रिझाने के लिए वेदव्यास जी ने अपने शिष्यों को श्रीमदभागवत का एक श्लोक बताया और कहा कि इस श्लोक को शुकदेव के सामने कहना। उन शिष्यों ने ऐसा ही किया और शुकदेव जी जहाँ पर खड़े थे। उनके पास जाकर श्रीमद्भागवत का श्लोक गाने लगे।

    उसको सुनके शुकदेव जी उनके पास गए और ये श्लोक सीखने को कहा वे  शुकदेवजी को वेदव्यासजी के पास ले गए। फिर वेदव्यासजी ने शुकदेव जी को श्रीमद्भागवत कथा का पूरा ज्ञान दिया। आगे जाकर शुकदेव जी ने परिक्षित महाराज जी को 7 दिन में भगवत कथा का ज्ञान दिया और उनका उद्धार किया।

    धर्मराज यमदेव बारहवें महाजन :

    धर्मराज जी भी भगवान के परम् भक्त थे। भगवान की लीलाओं में साथ देने के लिए वो दो रूपों में पृथ्वी लोक पर आए पहले धर्मात्मा विदुर और दूसरे धर्मराज युधिष्ठिर के रूप में भगवान का दुगना सानिध्य प्राप्त किया। तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार भजन हिंदी लिरिक्स

    अजामिल की कथा – भगवान के परम भक्त श्री धर्मराज परम ज्ञानी भी है। ये बात अजामिल के कथा से भी साबित होती है। अजामिल नाम का एक व्यक्ति था। वो अपने जीवन के प्रथम चरण में बहुत ही भक्ति भाव मे लगा रहता था। उसकी पत्नी भी बहुत सुशील थी लेकिन एक वेश्या के लिए जब उसका मन उन्मुक्त हुआ। तब वो पूजा पाठ धर्म-अधर्म सब भूल गया।

    उसने अपनी पत्नी को छोड़ दिया और उस वैश्या के साथ रहने लगा। उसने उस वैश्या से कई सन्तान उत्पन्न की। अब एक दिन किसी ने ऋषि मुनियों से ये झूठ कहा कि अजामिल एक सन्त आदमी है। वो सन्तो की बहुत सेवा करता है। ये सुनकर सभी सन्त उसके घर गए वैसे तो वो सन्तो का आदर नही करता था। पर उन सन्तो को देखकर उसके अभी पाप नष्ट हो गए।

    उसने उन सन्तो की बहुत सेवा की उसके एक सन्तान हुई उसका नाम उन सन्तो ने नारायण रखने को कहा। उसने अपने छोटे पुत्र का नाम नारायण रखा। अपने छोटे पुत्र में अजामिल का बहुत मोह था। वो हर वक्त नारायण नारायण करता रहता था। फिर एक दिन उसकी मृत्यु होने लगी उसके सामने यमदूतों को देखकर भी वो अपने पुत्र नारायण को जोर जोर से पुकारने लगा।

    तब वहाँ पर विष्णु दूत प्रकट हुए और उन्होंने उन यमदूतों को डांट कर वहाँ से भगा दिया। फिर वो यमदूत धर्मराज के पास गए तब धर्म राज ने उनको भगवान और उनके नाम की महिमा बताई।

    तो ये तो 12 महाजन के जीवन का थोड़ा सा परिचय था। आपको ये पोस्ट कैसा लगा कॉमेंट करे अगर आपको ये पोस्ट अच्छा लगे तो शेेेयर करें।

    किशोरी कुछ ऐसा इंतजाम हो जाए हिंदी भजन

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